Thursday 18 June 2020

चस्का नहीं अब स्वाद का,
सादगी भरा ज़ायका ही,
मस्का मार जाता है...
कुछ अज़ीज़ तो क्या कहूं,
साधारण लहज़ा ही,
मन को भा जाता है...

बदलती हवाओं से रंज नहीं,
कुछ भेद कह जाएं
तो मुक्तसर
किसी बात का कोई खेद नहीं,
गर घर कर जाएं
तो शांत रहना ही बेहतर...

रंगों में फर्क नहीं,
कुछ रंगीन 
तो कुछ
बेरंग ही
तृप्त कर जाता है,
कुछ दिलचस्पी तो अब खास नहीं,
बस सब
कुछ दिलचस्प लग जाता है...

तालबद्ध नहीं,
बेसुर ही 
राग गुनगुनाती हूं,
स्पष्ट तो
इन शब्दों में पूर्ण नहीं,
बस कर्ज़ लिए थोड़ा
काव्य रचना कर
सम्पूर्ण हो जाती हूं ।।






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